सोमवार, 16 अगस्त 2010

औद्योगिक प्रदेश

मुंबई-पुणे औद्योगिक प्रदेश

यह मुंबई-थाने से पुणे तथा नासिक और शोलापुर जिलों के संस्पर्शी क्षेत्रों तक विस्तृत है। इसके अतिरिक्त रायगढ़ अहमदनगर सतारा सांगली और जलगाँव जिलों में औद्योगिक विकास तेजी से हुआ है। इस प्रदेश का विकास मुंबई में सूती वस्त्र उद्योग की स्थापना के साथ प्रारंभ हुआ। मुंबई में कपास के पृष्ठ प्रदेश में स्थिति होने और नम जलवायु के कारण मुंबई में सूती वस्त्र उद्योग का विकास हुआ। 1869 में स्वेज नहर के खुलने के कारण मुंबई पत्तन के विकास को प्रोत्साहन मिला। इस पत्तन के द्वारा मशीनों का आयात किया जाता था। इस उद्योग की आवश्यकता पूर्ति के लिए पश्चिमी घाट प्रदेश में जलविद्युत शक्ति का विकास किया गया।
सूती वस्त्र उद्योग के विकास के साथ रासायनिक उद्योग भी विकसित हुए। मुंबई हाई पेट्रोलियम क्षेत्र और नाभिकीय उर्जा संयंत्र वफी स्थापना ने इस प्रदेश को अतिरिक्त बल प्रदान किया। इसके अतिरिक्त अभियांत्रिकी वस्तुएँ पेट्रोलियम परिशोधन पेट्रो-रासायनिक चमड़ा संश्लिष्ट और प्लास्टिक वस्तुएँ दवाएँ उर्वरक विद्युत वस्तुएँ जलयान निर्माण इलेक्ट्रॉनिक्स सॉफ़्टवेयर परिवहन उपकरण और खाद्य उद्योगों का भी विकास हुआ। मुंबई कोलाबा कल्याण थाणे ट्राम्बे पुणे पिंपरी नासिक मनमाड शोलापुर कोल्हापुर अहमदनगर सतारा और सांगली महत्वपूर्ण औद्योगिक केंद्र है।
हुगली औद्योगिक प्रदेश
हुगली नदी के किनारे बसा हुआ यह प्रदेश उत्तर में बाँसबेरिया से दक्षिण में बिडलानगर तक लगभग 100 किलोमीटर में फैला है। उद्योगों का विकास पश्चिम में मेदनीपुर में भी हुआ है। कोलकाता-हावड़ा इस औद्योगिक प्रदेश के केंद्र हैं। इसके विकास में ऐतिहासिक भौगोलिक आर्थिक और राजनीतिक कारकों ने अत्यधक योगदान दिया है । इसका विकास हुगली नदी पर पत्तिन के बनने के बाद प्रारंभ से हुआ। देश में कोलकाता एक प्रमुख केंद्र के रूप में उभरा। इसके बाद कोलकाता भीतरी भागों से रेलमार्गों और सड़क मार्गों द्वारा जोड़ दिया गया। असम और पश्चिम बंगाल की उत्तरी पहाड़ियों में चाय बगानों के विकास उससे पहले नील का परिष्करण और बाद में जूट संसाधनों ने दामोदर घाटी के कोयला क्षेत्रों और छोटानागपुर पठार के लौह अयस्क के निक्षेपों के साथ मिलकर इस प्रदेश के औद्योगिक विकास में सहयोग प्रदान किया।
बिहार के घने बसे भागों पूर्वी उत्तर प्रदेश और उड़ीसा से उपलब्ध सस्ते श्रम ने भी इस प्रदेश के विकास में योगदान दिया। कोलकाता ने अंग्रेजी ब्रिटिश भारत की राजधानी 1773-1911- होने के कारण ब्रिटिश पूँजी को भी आकर्षित किया। 1855 में रिशरा में पहली जूट मिल की स्थापना ने इस प्रदेश के आधुनिक औद्योगिक समूहन के युग का प्रारंभ किया। जूट उद्योग का मुख्य केंद्रीकरण हावड़ा और भटपारा में है। 1947 में देश के विभाजन ने इस औद्योगिक प्रदेश को बुरी तरह प्रभावित किया। जूट उद्योग के साथ ही सूती वस्त्र उद्योग भी पनपा। कागज इंजीनियरिंग टेक्सटाइल मशीनों विद्युत रासायनिक औषधीय उर्वरक और पेट्रो-रासायनिक उद्योगों का भी विस्तार हुआ। कोननगर में हिंदुस्तान मोटर्स लिमिटेड का कारखाना और चितरंजन में डीजाल इंजन का कारखाना इस प्रदेश के औद्योगिक स्तंभ हैं। इस प्रदेश के महत्वपूर्ण औद्योगिक केंद्र कोलकाता हावड़ा हल्दिया सीरमपुर रिशरा शिबपुर नैहाटी गुरियह काकीनारा श्यामनगर टीटागढ़ सौदेपुर बजबज बिडलानगर बाँसबेरिया बेलगुरियह त्रिवेणी हुगली बेलूर आदि हैं। फिर भी इस प्रदेश के औद्योगिक विकास में दूसरे प्रदेशों की तुलना में कमी आई है। जूट उद्योग की अवनति इसका एक कारण है।
बंगलौर-चेन्नई औद्योगिक प्रदेश
यह प्रदेश स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अत्यधक तीव्रता से औद्योगिक विकास का साक्षी है। 1960 तक उद्योग केवल बंगलौर सेलम और मदुरई जिलों तक सीमित थे लेकिन अब वे तमिलनाडु के विल्लूपुरम को छोड़कर लगभग सभी जिलों में फ़ैल चुके है। कोयला क्षेत्रों से दूर होने के कारण इस प्रदेश का विकास पायकारा जलविद्युत संयंत्र पर निर्भर करता है जो 1932 में बनाया गया था। कपास उत्पादक क्षेत्र होने के कारण सूती वस्त्र उद्योगा ने सबसे पहले पैर जमाए थे। सूती मिलों के साथ ही करघा उद्योग का भी तेजी से विकास हुआ। अनेक भारी अभियांत्रिकी उद्योग बंगलौर में एकत्रित हो गए। वायुयान एच-ए-एल– मशीन उपकरण टूल-पाने आरै भारत इलेक्ट्रानिक्स इस प्रदेश के औद्योगिक स्तंभ हैं। टेक्सटाइल रेल के डिब्बे डीजल इंजन रेडियो हल्की अभियांत्रिकी वस्तुएँ रबर का सामान दवाएँ एल्युमीनियम शक्कर सीमेंट ग्लास कागजा रसायन फ़िल्म सिगरेट माचिस चमड़े का सामान आदि महत्वपूर्ण उद्योग है। चेन्नई में पेट्रोलियम परिशोधनशाला सेलम में लोहा-इस्पात संयंत्र और उर्वरक संयंत्र अभिनव विकास हैं।
गुजरात औद्योगिक प्रदेश
इस प्रदेश का केंद्र अहमदाबाद और वडोदरा के बीच है लेकिन यह प्रदेश दक्षिण में वलसाद और सूरत तक और पश्चिम में जामनगर तक पैफला है। इस प्रदेश का विकास 1860 में सूती वस्त्र उद्योग की स्थापना से भी संबंधित है। यह प्रदेश एक महत्वपूर्ण सूती वस्त्र उद्योग क्षेत्र बन गया। कपास उत्पादक क्षेत्र में स्थित होने के कारण इस प्रदेश को कच्चे माल और बाजार दोनों का ही लाभ मिला। तेल क्षेत्रों की खोज से पेट्रो-रासायनिक उद्योगों की स्थापना अंकलेश्वर वडोदरा और जामनगर के चारों ओर हुई। कांडला पत्तन ने इस प्रदेश के तीव्र विकास में सहयोग दिया। कोयली में पेट्रोलियम परिशोधनशाला ने अनेक पेट्रो-रासायनिक उद्योगों के लिए कच्चा माल उपलब्ध कराया। औद्योगिक संरचना में अब विविधता आ चुकी है। कपड़ा सूती सिल्क और कृत्रिम कपड़े- और पेट्रो-रासायनिक उद्योगों के अतिरिक्त अन्य उद्योग भारी और आध्रा रासायनिक मोटर ट्रैक्टर डीजल इंजन टेक्सटाइल मशीनें इंजीनियरिंग औषधि रंग रोगन कीटनाशक चीनी दुग्ध उत्पाद और खाद्य प्रक्रमण हैं। अभी हाल ही में सबसे बड़ी पेट्रोलियम परिशो्धनशाला जामनगर में स्थापित की गई है। इस प्रदेश के महत्वपूर्ण औद्योगिक केंद्र अहमदाबाद वडोदरा भरूच कोयली आनंद खेरा सुरेंद्रनगर राजकोट सूरत वलसाद और जामनगर हैं।
छोटानागपुर प्रदेश
छोटानागपुर प्रदेश झारखंड उत्तरी उड़ीसा और पश्चिमी पश्चिम बंगाल में फ़ैला है और भारी धातु उद्योगों के लिए जाना जाता है। यह प्रदेश अपने विकास के लिए दामोदर घाटी में कोयला और झारखंड तथा उत्तरी उड़ीसा में धात्विक और अधात्विक खनिजों की खोज का रिणी है। कोयला लौह अयस्क और दूसरे खनिजों की निकटता इस प्रदेश में भारी उद्योगों की स्थापना को सुसाध्य बनाती है। इस प्रदेश में छ: बड़े एकीकृत लौह-इस्पात संयंत्र जमशेदपुर बर्नपुर कुल्टी दुर्गापुर बोकारो और राउरकेला में स्थापित है। उर्जा की आवश्यकता को पूरा करने के लिए ऊष्मीय और जलविद्युतशक्ति संयंत्रों का निर्माण दामोदर घाटी में किया गया है। प्रदेश के चारों ओर घने बसे प्रदेशों से सस्ता श्रम प्राप्त होता है और हुगली प्रदेश अपने उद्योगों के लिए बड़ा बाजार उपलब्ध कराता है।
भारी इंजीनियरिंग मशीन-औजार उर्वरक सीमेंट कागजा रेल इंजन और भारी विद्युत उद्योग इस प्रदेश के कुछ महत्वपूर्ण उद्योग हैं। राँची धनबाद चैबासा सिंदरी हजारीबाग जमशेदपुर बोकारो राउरकेला दुर्गापुर आसनसोल और डालमियानगर महत्वपूर्ण केंद्र हैं।
विशाखापट्‌नम-गुंटूर प्रदेश
यह औद्योगिक प्रदेश विशाखापत्तनम्‌ जिले से लेकर दक्षिण में कुरूनूल और प्रकासम जािलों तक पैफला है। इस प्रदेश का औद्योगिक विकास विशाखापट्‌नम और मछलीपटनम पत्तनों इसके भीतरी भागों में विकसित कृषि तथा खनिजों के बड़े संचित भंडार पर निर्भर है। गोदावरी बेसिन के कोयला क्षेत्र इसे उफर्जा प्रदान करते हैं। जलयान निर्माण उद्योग का प्रारंभ 1941 में विशाखापट्‌नम में हुआ था। आयातित पेट्रोल पर आधारित पेट्रोलियम परिशोधनशाला ने कई पेट्रो-रासायनिक उद्योगों की वृद्धि को सुगम बनाया है।
शक्कर वस्त्र जूट कागज उर्वरक सीमेंट एल्युमीनियम और हल्की इंजीनियरिंग इस प्रदेश के मुख्य उद्योग हैं। गुंटूर जिले में एक शीशा-जिंक प्रगालक कार्य कर रहा है। विशाखापट्‌नम में लोहा और इस्पात संयंत्र बेलाडिला लौह अयस्क का प्रयोग करता है। विशाखापट्‌नम विजयवाड़ा विजयनगर राजमुंदरी गुंटूर एलूरू और कुरनूल महत्वपूर्ण औद्योगिक केंद्र हैं।
गुड़गाँव-दिल्ली-मेरठ प्रदेश
इस प्रदेश में स्थित उद्योगों में पिछले कुछ समय से बड़ा तीव्र विकास दिखाई देता है। खनिजों और विद्युतशक्ति संसाधनों से बहुत दूर स्थित होने के कारण यहाँ उद्योग छोटे और बाजार अभिमुखी हैं। इलेक्ट्रॉनिक हल्के इंजीनियरिंग और विद्युत उपकरण इस प्रदेश के प्रमुख उद्योग हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ सूती ऊनी और कृत्रिम रेशा वस्त्र होजरी शक्कर सीमेंट मशीन उपकरण ट्रैक्टर साईकिल कृषि उपकरण रासायनिक पदार्थ और वनस्पति घी उद्योग हैं जो कि बड़े स्तर पर विकसित हैं। सॉफ़टवेयर उद्योग एक नई वृद्धि है। दक्षिण में आगरा-मथुरा उद्योग क्षेत्र है जहाँ मुख्य रूप से शीशे और चमड़े का सामान बनता है। मथुरा तेल परिशोधन कारखाना पेट्रो-रासायनिक पदार्थो का संकुल है। प्रमुख औद्योगिक केंद्रों में गुडगाँव दिल्ली शाहदरा मेरठ मोदीनगर गाजियाबाद अंबाला आगरा और मथुरा का नाम लिया जा सकता है।
कोलम-तिरुवनंतपुरम प्रदेश
यह औद्योगिक प्रदेश तिरुवनंतपुरम कोलम अलवाय अरनाकुलम्‌ और अल्लापुझा जिलों में फ़ैला हुआ है। बागान कॄषि और जलविद्युत इस प्रदेश को औद्योगिक आधार प्रदान करते हैं। देश की खनिज पेटी से बहुत दूर स्थित होने के कारण कॄषि उत्पाद प्रव्रफमण और बाहृजार अभिविन्यस्त हल्के उद्योगों की इस प्रदेश पर से अधिकता है। उनमें से सूती वस्त्र उद्योग चीनी रबड़ माचिस शीशा रासायनिक उर्वरक और मछली आधारित उद्योग महत्वपूर्ण हैं। खाद्य प्रक्रमण कागज नारियल रेशा उत्पादक एल्यूमीनियम और सीमेंट उद्योग भी महत्वपूर्ण हैं। कोची में पेट्रालियम परिशोधनशाला की स्थापना ने इस प्रदेश के उद्योगों को एक नया विस्तार प्रदान किया है। कोलम तिरुवनंतपुरम्‌ अलुवा कोची अलापुझा और पुनालूर महत्वपूर्ण औद्योगिक केंद्र हैं।

भारत के औद्योगिक प्रदेश और जिले

भारत के औद्योगिक प्रदेश और जिले


मुख्य औद्योगिक प्रदेश-
कुल-8 मुख्य औद्योगिक प्रदेश है-
1- मुंबई-पुणे प्रदेश 2- हुगली प्रदेश 3- बंगलौर-तमिलनाडु प्रदेश 4- गुजरात प्रदेश 5- छोटानागपुर प्रदेश 6- विशाखापट्‌नम- गुंटूर प्रदेश 7- गुड़गाँव-दिल्ली-मेरठ 8- कोलम-तिरुवनंतपुरम प्रदेश।
लघु औद्योगिक प्रदेश
कुल-13 लघु औद्योगिक प्रदेश है-
1-अंबाला-अमृतसर 2- सहारनपुर-मुजफ़रनगर-बिजनौर 3- इंदौर-देवास-उज्जैन 4- जयपुर-अजमेर 5- कोल्हापुर-दक्षिणी कन्नड़ 6- उत्तरी मालाबार 7- मध्य मालाबार 8- अदीलाबाद-निजामाबाद 9- इलाहाबाद-वाराणसी-मिर्जापुर 10- भोजपुर-मुँगेर 11-
दुर्ग-रायपुर 12- बिलासपुर-कोरबा 13- ब्रह्मपुत्र घाटी।
औद्योगिक जिले-
कुल-15 औद्योगिक जिले है-
1- कानपुर 2- हैदराबाद 3-आगरा 4- नागपुर 5- ग्वालियर 6- भोपाल 7- लखनऊ 8-जलपाई गुड़ी 9-कटक 10- गोरखपुर 11- अलीगढ़ 12- कोटा 13- पूर्णिया 14- जबलपुर 15- बरेली।

देश में उद्योगों का वितरण

देश में उद्योगों का वितरण


देश में उद्योगों का वितरण समरूप नहीं है। उद्योग कुछ अनुकूल अवस्थितिक कारकों से कुछ निश्चित स्थानों पर केंद्रित हो जाते हैं। उद्योगों के समूहन को पहचानने के लिए कई सूचकांकों का उपयोग किया जाता है जिनमें प्रमुख हैं-
1- औद्योगिक इकाइयों की संख्या
2- औद्योगिक कर्मियों की संख्या
3- औद्योगिक उद्देश्यों के लिए उपयोग की जाने वाली प्रयुक्त शक्ति की मात्रा
4- कुल औद्योगिक निर्गत वनजचनज-
5- उत्पादन प्रक्रिया जन्य मूल्य आदि।

मंगलवार, 10 अगस्त 2010

राजस्‍थान का एकीकरण

राजस्थान का एकीकरण

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सत्ता परिवर्त्तन की दिशा में सरकार की शुरुआती नीतियाँ

बीकानेर के शासक का रुको और देखो नीति का विरोध

माउण्टबेटन योजना

एकीकरण में पटेल की भूमिका

कोटा में विभिन्न राजपूताना रियासतों के प्रधानमंत्री की बैठक

राजस्थान संघ का निर्माण

अलवर का भारत संघ में विलय

भरतपुर का भारत-संघ में विलय

मत्स्य-संघ (मत्स्य युनियन) काल निर्माण

संयुक्त राजस्थान संघ का निर्माण

वृहद् राजस्थान का निर्माण

वृहत्तर राजस्थान की स्थापना

मारवाड़ (जोधपुर) को विलय सम्बंधी जाटिलताएँ व उसका समाधान

सिरोही की विलय सम्बंधी समस्याएँ व समाधान



सत्ता परिवर्त्तन की दिशा में सरकार की शुरुआती नीतियाँ


१ सितम्बर १९३९ को द्वितीय विश्वयुद्ध आरम्भ होने के कुछ सप्ताह पश्चात् ही भारत के युद्ध में प्रवेश की घोषणा कर दी गई। वायसराय लार्ड लिनलिथगों ने भारत को संघ बनाने की ब्रिटिश साम्राज्य की नीति को दुहराया तथा देशी शासकों को आश्वासन देते हुए सन्धियों और समझौतों की शर्त्तों� का सम्मान करने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लिया। नरेन्द्र-मडल ने भावी रियासतो की स्वायत्तता की मांग को दुहराया। युद्ध के नाजुक दौर में पहुँच जाने पर चैम्बरलेन के स्थान पर सर विन्स्ट चर्चिल की राष्ट्रीय सरकार का गठन हुआ। वायसराय के अगस्त प्रस्ताव में नवीन-संविधान के परिकल्पना की बात कही गयी।



चर्चिल ने १९४२ में संवैधानिक गतिरोध को समाप्त करने हेतु-क्रिप्स को भारत भेजा। क्रिप्स योजना में देशी शासकों की अवहेलना कर दी गई। देशी शासकों के सम्बन्ध में कहा गया कि उन्हे केवल जनता के अनुपात में ही प्रतिनिधित्व उपलब्ध होगा प्रथा नवीन परिस्थितियों में इन राज्यों के साथ किसी नवीन संधि की व्यवस्था करनी होगी। देशी रियासतों ने समानान्तर स्वंतत्र संघ बनाने की इच्छा प्रकट की जबकि क्रिप्स की योजना में भारतीय संघ के निर्माण कर प्रस्ताव था।

२४ अक्टूबर १९४३ को लार्ड वेवल ने गवर्नर जनरल पद का भार सम्भाला। उन्होने युद्ध के समय देशी रियासतों का समर्थन तथा सहयोग प्राप्त करने के लिए उन्हे यह आश्वासन दिया कि सरकार कोई भी राजनैतिक निर्णय लेते समय उनके हितों और अधिकारों की उपेक्षा नहीं करेगी। युद्ध के निर्णायक दौर में भोपाल के नवाब को नरेन्द्र - मण्डल का चांसलर निर्वाचित किया गया। वे छोटे राज्यों के सहयोग से देशी रियासतों को देश की राजनीति में तृतीय शक्ति बनाना चाहते थे। १५ जून १९४५ को ठवेवल योजना' की घोषणा की गई। नरेन्द्र-मण्डल को सम्बोधित करते हुए कहा गया कि प्रत्येक राज्य में राजनैतिक स्थिरता, पर्याप्त आर्थिक साधन तथा जनता की प्रतिनिधियों की राज्य प्रशासन में प्रभावशाली भूमिका आवश्यक है। यदि कोई राज्य इन शर्तों� को पुरा नहीं कर सकता तो उसे किसी बड़ी इकाई के साथ मिल जाना चाहिए अथवा छोटे-छोटे राज्यों को मिलाकर बड़े राज्य की स्थापना करनी चाहिए।

इग्लैंड की मजदूरदलीय सरकार ने १९४६ में केविनेट मिशन भारत भेजा। मिशन ने देशी रियासतों को आश्वासन दिया कि ब्रिटिश सरकार रियासतों की सहमति के बिना राजनैतिक प्रशासनिक सम्बन्धों में परिवर्त्तन नहीं करेगी। १६ मई १९४६ को मिशन ने अपनी संवैधानिक योजना घोषित की जिस में रियासतों के सम्बन्ध में स्पष्ट कहा गया कि ब्रिटिश सरकार के पास जो प्रभुसत्ता है वह उसके हटते ही देशी शासकों को मिल जाएगी तथा देशी शासक भारतीय या किसी भी संघ में साम्मिलित होने या न होने के लिए स्वतंत्र होगे। देशी रियासतों ने इसे स्वीकार कर लिया। मिशन की घोषणा के अनुसार नरेन्द्र-मंडल ने राज्यों की एक वार्ता समिति रियासती प्रश्नों के सम्बन्ध में देश के राजनैतिक दलों में समझौते के लिए भोपाल के नवाब की अध्यक्षता में इसे गठित किया।

१९३९ में अखिल भारतीय रियासती प्रजा परिषद के लुधियाना अधिवेशन में नेहरु ने अध्यक्षीय भाषण में अंग्रेजों के साथ की गई संधियों को मानने से इंकार कर दिया तथा देशी रियासतों को ही समाप्त घोषित कर दिया। यह स्पष्ट किया गया कि वे ही रियासतें योग्य प्रशासनिक इकाइयां मानी जा सकती है जिसकी जनसंख्या कम से कम २० लाख तथा राज कम से कम ५० लाख रुपये हो।

रियासतों को या तो आपस में मिल जाना चाहिए या समीपवर्ती रियासतों अथवा प्रान्तों में सम्मलित हो जाना चाहिए। इस अधिवेशन में राजपूताना की सभी रियासतों को एक वर्ग में रखा गया। बाद में रियासती प्रजा परिषद ने नेहरु की अध्यक्षता में उदयपुर अधिवेशन में २० लाख के स्थान पर ५० लाख जनसंख्या तथा ५० लाख राज के स्थान पर ३ करोड़ वार्षिक आय सम्बन्धी विचार दिये गये। रियासती प्रजा परिषद की राजपूताना शाखा की कार्यकारिणी ने प्रस्ताव पारित किया कि राजपूताना की कोई भी रियासत आधुनिक प्रगतिशील राज्य की सुविधा उपलब्ध नही कर सकती इसलिए सभी रियासतों को अजमेर-मेरवाड़ा प्रान्त में मिलाकर एक इकाई बना दिया जाना चाहिए। जवाहर लाल नेहरु ने रियासती प्रजा-परिषद के ग्वालियर अधिवेशन में यह महत्वपूर्ण घोषणा की, कि जो देशी रियासत संविधान सभा में भाग नहीं लेगी, उसे शत्रु रियासत समझा जाएगा। फरवरी, १९४७ में ब्रिटिश सरकार ने घोषणा की, कि यदि अप्रैल के अधिवेशन तक देशी रियासतों के प्रतिनिधि संविधान-सभा में नहीं पहुँचे तो रियासतों के हितों को क्षति होगी। शासकगण जनता को अधिकार न देकर अपनी निरंकुशता को बनाये रखने के लिए मांगे रख रहे थे।

अखिल भारतीय रियासती प्रजा परिषद - ने नरेन्द्र-मण्डल को देशी-रियासतों का प्रतिनिधित्व करने के अधिकार को चुनौती दी थी।

२० फरवरी, १९४७ को इंगलैड़ के प्रधानमंत्री एटली ने ऐतिहासिक घोषणा की, कि जुन १९४८ तक भारत के सत्ता का हस्तान्तरण हो जाएगा।




बीकानेर के शासक का रुको और देखो नीति का विरोध

देशी शासकों में संविधान सभा में प्रवेश के प्रश्न पर मतभेद था। बीकानेर के शासक सार्दूलसिंह ने भोपाल के नवाब की ठरुको एवं देखो' नीति का विरोध किया। उन्होने इस नीति को आत्मघाती बताया तथा देशी शासकों को रियासतों में उत्तरदायी सरकारों की स्थापना की आवश्यकता पर बल दिया। इस राजनैतिक परिस्थिति पर जादुई असर पड़ा तयारु नरेन्द्र-मण्डल की स्थायी-समिति से कई शासको ने त्यागपत्र दे दिया।




माउण् बेटन योजना

लार्ड माउन्टबेटन ने भारत आने के पश्चात् हस्तान्तरण की योजना बनाई। उन्होने घोषणा की कि १५ अगस्त १९४७ को दो स्वतंत्र राष्ट्रों, भारत व पाकिस्तान की स्थापना होगी तथा देशी रियासतों को स्वतंत्रता होगी कि वे चाहे तो भारत या पाकिस्तान में सम्मिलित हो या स्वयं का स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रखे। वायसराय के संवैधानिक सलाहकार वी. पी. मेनन ने निर्णायक भूमिका निभाई। राष्ट्रीय नेताओं तथा सरकारी अधिकारियों से विचार-विमर्श कर ५ जून १९४७ को माउन्टबेटन ने अलग से रियासती विभाग की स्थापना की। सरदार पटेल उसके कार्यकारी मंत्री तथा वी.पी. मेनन सचिव बनाये गये।




एकीकरण में पटेल की भूमिका

५ जूलाई १९४७ को सरदार पटेल ने रियासतों के प्रति नीति को स्पष्ट करते हुए कहा कि रियासतों को तीन विषयों सुरक्षा, विदेशा तथा संचार-व्यवस्था के आधार पर भारतीय संघ में सम्मिलित किया जाएगा। धीरे-धीरे बहुत-सी देशी रियासतों के शासक भोपाल के नवाब से अलग हो गये तथा इस प्रकार नवस्थापित रियासती विभाग की योजना को सफलता मिली। १५ अगस्त १९४७ तक हैदराबाद, कश्मीर तथा जूनागढ़ को छोड़कर शेष भारतीय रियासतें भारत संघ में सम्मिलित हो गयी। देशी रियासतों का विलय स्वतंत्र भारत की पहली उपलाब्धि थी तथा निर्विवाद रुप से पटेल का इसमें विशेष योगदान था।





कोटा में विभिन्न राजपूताना रियासतों के प्रधानमंत्री की बैठक

१५ जून १९४६ को कोटा के प्रधानमंत्री ने राजपूताना के विभिन्न देशी रियासतों के प्रधानमंत्रियों की बैठक का सुझाव दिया। इस बैठक में राजपूताना संघ के निर्माण पर विचार-विमर्श किया गया। राजपूताना के रियासतों ने यह महसूस किया कि अगर इस अवसर पर वे एक नहीं हुए तो आर्थिक तथा औधौगिक विकास में पिछड़ जाऐगे। इसलिये यह निष्कर्ष निकाला गया कि राजपूताना का भू-भाग,जिसका ऐतिहासिक
महत्व है, जिसकी एक संस्कृति हैं और जिस के सामान्य सामाजिक रीति-रिवाज समान है, एक होकर एक प्रभावशाली संघ की स्थापना करे। यह भी सुझाव दिया गया कि यह संघ दक्षिणी तथा दक्षिण-पश्चिमी सीमा पर स्थित रियासतों का भी स्वागत करेगी।

इस रिपोर्ट में दिये गये सुझावों को राजपूताना के शासकों ने, विशेषकर बड़ी रियासतों ने स्वीकार नहीं किया। उन्हे भय था कि ऐसे संघ की स्थापना से भारत में उनके राज्य विलुप्त हो जाऐगे। बीकानेर के प्रधानमंत्री के. एम. पणिक्कर की मान्यता थी कि बड़ी रियासतों के पास इतने साधन है कि वे प्रान्तीय स्तर तक प्रशासन को स्वयं देख सकती है और चला सकती है। बीकानेर, जयपुर, जोधपुर और उदयपुर की रियासतें स्वयं अपने साधनों को विकसित कर सकती है। वे उच्च शिक्षा एवं उच्च न्यायालय के दृष्टिकोण से भी राजस्थान संघ के निर्माण को उचित नहीं मानते थे। उनके अनुसार इस में वैद्यानिक और कार्यकारणी के क्षेत्र में कोई विशेष लाभ नहीं हो सकता।

राजस्थान निर्माण की प्रक्रिया जटिल थी। राजपूताना में उस समय १९ सलामी रियासतें तथा तीन गैर सलामी रियासतें थी। इनकी अपनी परम्पराएँ थी। शासकों में राजतंत्र की तीव्र भावना थी। इन परिस्थितियों ने समझौतों की प्रक्रिया को धीमा तो कर दिया था लेकिन सभी तरह के विरोधो व मतान्तरों के बावजुद राजस्थान के एकीकरण की प्रक्रिया चरणबद्ध रुप से शुरु हो चुकी थी। नि:सन्देह स्वतंत्रता-पश्चात् विभाजन के अवसर पर भड़की हुई साम्प्रदायिक आग में इसे और आसान बना दिया।





राजस्थान संघ का निर्माण

राजस्थान संघ के निर्माण हेतु अनेक प्रस्ताव रखे गये। मेवाड़ के शासक भूपाल सिंह के अनुसार जो रियासतें आर्थिक दृष्टिकोण से पिछड़ी हुई थी, वे स्वंतत्र भारत में अपना महत्व बनाये नहीं रख सकेगी। अत: रियासतों को अपने सभी साधन एक कर देने चाहिए। उनकी सार्थक कोशिश से एक प्रस्ताव पारित हुआ जिसके अन्तर्गत राजस्थान संघ (राजस्थान युनियन) की योजना स्वीकार कर ली गयी। जयपुर, जोधपुर तथा बीकानेर आदि बड़ी रियासतों को छोड़कर उदयपुर के महाराणा, बूंदी के राव राजा, कोटा के महाराज, डूंगरपुर के महारावल, विजयनगर, करौली, प्रतापगढ़, रतलाम, बांसवाड़ा और किरानगढ़ के महाराजा, झालावाड़ के महाराजा, शाहपुर के राजाधिराज, जैसलमेर के महाराजकुमार, ईडर के महाराजा के प्रतिनिधि, पालनपुर के नवाब तथा दाँता के महाराणा ने सिद्धान्त रुप से राजस्थान यूनियन की स्थापना का निर्णय लिया। २५ मार्च १९४८ को इसके निर्माण की औपचारिकता पुरी हो गयी। जयपुर, जोधपुर तथा बीकानेर के प्रधानमंत्रियों को भी आमंत्रित किया गया ताकि सम्पूर्ण राजस्थान यूनियन का निर्माण संभव हो सके।





अलवर का भारत संघ में विलय

अलवर के शासक ने हिन्दू महासभा को अधिक महत्व देते हुए डॉ. एन. वी. खरे को प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया। डॉ. खरे कांग्रेस विरोधी थे। गाँधी जी की हत्या के बाद के छानबीन से यह बात सामने आयी कि उनके हत्यारे किसी न किसी रुप से अलवर से जुड़े थे। उनकी हत्या का षडयंत्र अलवर में ही रचा गया था। तथा डॉ. खरे का इसके पीछे सक्रिय हाथ था। डॉ. खरे की नियुक्ति तथा गाँधी जी को हत्या ने भारत सरकार को अलवर राज्य में हस्तक्षेप करने का अवसर प्रदान किया तथा भारत सरकार ने उसके प्रशासन को अपने अधीन कर लेने का निश्चय किया। भारत सरकार ने वी. पी. मेनन को परिस्थितियों का अध्ययन हेतु अलवर भेजा। मेनन के सुझाव से डॉ. खरे को पद से हटा दिया गया तथा सी. एन. वेंकटाचार्य को प्रशासक के रुप में नियुक्त कर दिया गया।





भरतपुर का भारत-संघ में विलय

भारत सरकार भरतपुर राज्य की भारत विरोधी तथा पक्षपातपूर्ण नीतियों से खुश नहीं थी।

भरतपुर के महाराजा ने १५ अगस्त को स्वत्रता दिवस नहीं मनाया।

अपने राज्य के समाचार पत्रों को राष्ट्रीय नेताओं की आलोचना की अनुमति दी।

जानबुझकर मुसलमानों को सताने की नीति अपनाई।

राज्य में अस्र-शस्र निर्माण का कारखाना स्थापित किया। यह समझौते के विरुद्ध था। ये अस्र-शस्र जाटों और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यकर्त्ताओं बीच बाँटे गये तथा इस तरह राज्य ने साम्प्रदायिक गतिविधियों में भाग लिया।

जाटों का पक्ष लेते हुए कई अन्य जातियों के प्रति अच्छा रवैया नहीं अपनाया।

सैनिको को नियंत्रित व अनुशासित करने में असफल रहे।


राजनैतिक अस्थिरता तथा तनाव के कारण भरतपुर के महाराजा को फरवरी १०, १९४८ को दिल्ली बुलाया गया तथा सुझाव दिया गया कि वे भरतपुर राज्य का प्रशासन भारत सरकार के अधीन कर दे। १४ फरवरी १९४८ को रायबहादुर सूरजमल के नेतृत्व में राज्य के मंत्रीमंडल ने त्यागपत्र दे दिया तथा एस. एन. सप्रू को भरतपुर राज्य का प्रशासक नियुक्त किया गया। बाद में भरतपुर के शासक को आरोप मुक्त कर दिया गया।




मत्स्य -संघ (मत्स्य युनियन) काल निर्माण

भारत सरकार में अलवर, भरपुर, धौलपुर तथा कसौली को मिलाकर एक संघ बनाने का निश्चय किया।
फरवरी २७ १९४८ को सम्बद्ध राज्यों के शासकों को दिल्ली बुलाया गया तथा उनके सामने यह प्रस्ताव रखा गया। संघ को भविष्य में राजस्थान संघ में सम्मिलित करने की बात स्पष्ट कर दी गई।

चूकि महाभारत काल में यह क्षेत्र मत्स्य-क्षेत्र के नाम से जाना जाता था अत: मत्स्य-संघ का नाम प्रस्तावित किया गया। चूकि अलवर और भरतपुर के शासकों के विरुद्ध जाँच चल रही थी अत: धौलपुर के महाराजा उदय मानसिंह को, जो सबसे वृद्ध थे राजप्रमुख बनाया गया। राजधानी अलवर रखी गई। मार्च १८, १९४८ को भारत सरकार के वरिष्ठ मंत्री नरहरि विष्णु गाडगिल ने इस संघ का उदघाटन किया।

इस नये राज्य का क्षेत्रफल करीब ३०,००० वर्ग कि. मी., जनसंख्या लगभग १९ लाख तथा आय लगभग १.८३ करोड़ रुपये थी। चारो रियासतों के प्रशासन को मिलाकर उसे भारत सरकार द्वारा नियुक्त एक प्रशासन के अधीन कर दिया गया। सेना, पुलिस, कानून-व्यवस्था एवं राजनीतिक विभाग सीधे प्रशासक के हाथ में दे दिये गये।

भरतपुर शासक के छोटे भाई राजा मानसिंह ने भरतपुर के विलय के विरोध में स्थानीय जाट समुदाय को मिलाकर उग्र आन्दोलन शुरु किया। मत्स्य-संघ की स्थापना से पूर्व भरतपुर में सरकार-विरोधी आन्दोलन भी हुए लेकिन उनपर उचित समय अविलम्ब नियंत्रण प्राप्त कर लिया गया।





संयुक्त राजस्थान संघ का निर्माण

३ मार्च १९४८ को कोटा, बूँदी, झालावाड़, टौंक डूंगरपुर बांसवाड़ा, प्रतापगढ़, किशानगढ़ तथा शाहपुरा रियासतों को मिलाकर संयुक्त राजस्थान संघ के निर्माण का प्रस्ताव रखा गया। रियासती विभाग की नीति के अन्तर्गत उदयपुर अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रखने का अधिकारी था। दीवान रामामूर्ति और उदयपुर के महाराणा ने रियासती विभाग के प्रस्ताव का विरोध किया अत: उदयपुर के बिना संयुक्त राजस्थान राज्य के निर्माण का फैसला किया गया।

संयुक्त राजस्थान में कोटा सबसे बड़ी रियासत थी अत: रियासती विभाग के निर्णयानुसार राजप्रमुख का पद कोटा के महाराव भीमसिंह को दिया गया। यह प्रस्ताव बूंदी के महाराव बहादुरसिंह को मान्य नहीं था। वंश परम्परा के अनुसार कोटा के महाराव बूंदी के महाराव के छुटभैया थे। बूंदी के महाराव ने उदयपुर जाकर महाराणा से प्रार्थना की कि वे इस नये राज्य में सम्मिलित हो जाते है तो राजप्रमुख बन जाऐंगे तथा समस्या का समाधान हो जाएगा, लेकिन सफलता नहीं मिली। कोटा के महाराव को राजप्रमुख बनाने का प्रस्ताव बूँदी को स्वीकार करना पड़ा। मार्च २५, १९४८ को वी. एन. गाडगिल ने संयुक्त राजस्थान संघ का उद्घाटन किया। इस संघ का क्षेत्रफल १७,००० वर्ग मील, जनसंख्या करीब २४ लाख तथा राज दो करोड़ था।

बाद में राजनैतिक बदलाव व जनता के विरोध के कारण उदयपुर के महाराणा ने संघ में सम्मिलित होने का इच्छा व्यक्त की। इसके बदले में उन्हें अनेक रियासतें व भत्ते दिये गये। महाराणा भूपालसिंह को राजप्रमुख बनाने का निर्णय लिया गया तथा उदयपुर को संयुक्त राजस्थान की राजधानी बनाई गई। कोटा के महत्व को बनाये रखने के लिए एरोनाटिकल कॉलेज, फॉरेस्ट स्कूल, पुलिस ट्रेनिंग रेन्ज तथा अन्य संस्थानों के कोटा में ही बने रहने का कोटा के महाराव का आग्रह स्वीकार कर लिया गया। यह भी निश्चय किया गया कि कोटा के महाराव वरिष्ठ उपराजप्रमुख तथा बूंदी और डूंगरपुर के शासक कनिष्ठ उपराजप्रमुख होंगे। अप्रैल १८, १९४८ को पं. जवाहरलाल नेहरु ने इसका उद्घाटन किया। माणिक्यलाल वर्मा को मुख्यमंत्री तथा गोकुललाल असावा को उप-मुख्यमंत्री बनाया गया।




वृहद् राजस्थान का निर्माण

संयुक्त राजस्थान संघ के निर्माण के बाद भारत सरकार ने अपना ध्यान जयपुर, जोधपुर तथा बीकानेर की ओर केन्द्रित किया अखिल भारतीय देशी रियासत लोक परिषद् की राजपूताना प्रान्तीय सभा ने जनवरी २०, १९४८ को प्रस्ताव पारित कर राजस्थान की सभी रियासतों को मिलाकर वृहद् राजस्थान के निर्माण की मांग की। इसी बीच समाजवादी दल ने वृहद् राजस्थान के निर्माण कर नारा दिया। अखिल भारतीय स्तर पर ठराजस्थान आन्दोलन समिति' की स्थापना की गई।

भारत सरकार की इन राज्यों के प्रति विशेष चिन्ता उनकी भौगोलिक स्थिति के कारण भी था। जयपुर के अतिरिक्त अन्य रियासतों की सीमाएँ पाकिस्तान से जुड़ी हुई थी। ये रियासतें आर्थिक दृष्टिकोण से भी पिछड़ी हुई थी। अत: अन्ततोगत्वा अनेक बैठकों के पश्चात् वी. पी. मेनन इन शासकों को विलय के लिए मनाने में सफल हो गये। उदयपुर के महाराणा को महाराजप्रमुख तथा जयपुर नरेश को राजप्रमुख बनाया गया।





वृहत्तर राजस्थान की स्थापना

मत्स्य संघ के निर्माण के समय वहाँ के शासकों को स्पष्ट बता दिया गया था कि राजस्थान संघ के निर्माण के बाद मत्स्य-संघ को उसमें मिला दिया जाएगा। मत्स्य-संघ की रियासतों में इस प्रश्न पर मतभेद था। अलवर और कसौली राजस्थान संघ में मिलना चाहते थे वही भरतपुर और धौलपुर भाषा के आधार पर संयुक्त प्रान्त में मिलना चाहते थे। भारत सरकार ने शंकर राव देव समिति की सिफारिशों को मानते हुए चारों रियासतों को १५ मई १९४९ को राजस्थान संघ में मिला दिया। जनवरी २६, १९५० को सिरोही रियासत भी वृहत्तर राजस्थान में सम्मिलित हो गयी।

अब तक स्वतंत्र भारत में जो संघ बने थे राजस्थान उनमें सबसे बड़ा था। इसका क्षेत्रफल १,२८,४२९ वर्ग मील था। जनसंख्या लगभग १५३ लाख तथा वार्षिक राज १८ करोड़ था। प्रदेश कांग्रेस ने सर्वसम्मति से हीरालाल शास्री को नेता चुना तथा मार्च ३०, १९४९ को उन्हे प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलवाई गई। जयपुर के महाराजा सवाई मानसिंह को राजप्रमुख तथा कोटा के महाराव भीमसींह को उपराजप्रमुख नियुक्त किया गया।

बाद में राज्य पुनर्गठन आयोग ने इकलौते बचे अजमेर के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया तथा अजमेर तथा माउण्ट आबू को राजस्थान में मिला देने की सिफारिश की। इस प्रकार राजस्थान के निर्माण की प्रकिया मार्च, १९४७ में प्रारम्भ हुई थी, नवंबर १, १९५६ को समाप्त हुई। अब राजस्थान का क्षेत्रफल १,३२, २१२ वर्गमील हो गया तथा यह देश का तीसरा बड़ा प्रान्त बन गया। राजप्रमुख तथा उपराजप्रमुख के पद को समाप्त कर गवर्नर के पद का सृजन किया गया। नवंबर १, १९५६ को सरदार गुरुमुख निहालसिंह को प्रथम गवर्नर के रुप में नियुक्त किया गया। मोहनलाल सुखाड़िया नवंबर १९५४ से जुलाई १९७१ तक मुख्यमंत्री के उत्तरदायित्व को पुरा करते रहे।





मारवाड़ (जोधपुर) को विलय सम्बंधी जाटिलताएँ व उसका समाधान

मोहम्मद अली जिन्ना मारवाड़ (जोधपुर) की रियासत को पाकिस्तान में मिलाना चाहता था। जोधपुर के शासक हनवन्त सिंह जो कांग्रेस-विरोधी माने जाते थे, पाकिस्तान में सम्मिलित होकर अपनी स्वतंत्रता का स्वप्न देख रहे थे। अगस्त १९४७ में वे धौलपुर के महाराजा तथा भोपाल के नवाब की मदद से जिन्ना से व्यक्तिगत रुप से मिले। महाराजा की जिन्ना से बन्दरगाह की सुविधा, रेलवे का अधिकार, अनाज तथा शास्रों के आयात आदि के विषय में बातचीत हुई। जिन्ना ने उन्हे हर तरह की शर्त्तो को पुरा करने का आश्वासन दिया। लेकिन बातचीत के दौरान ही उन्होने यह महसूस किया कि एक हिन्दू शासक हिन्दू रियासत को मुसलमानों के साथ शामिल कर रहा है। इस बारे में वे और सोचना चाहते थे।

भोपाल के नवाब के प्रभाव में आकर महाराजा हनवन्त सिंह ने उदयपुर के महाराणा से भी पाकिस्तान में सम्मिलित होने का आग्रह किया। लेकिन उन्होने उनके आग्रह को ठुकराते हुए महाराजा हनवन्तसिंह को पाकिस्तान में न मिलने के लिए पुन: विचार करने को मजबूर कर दिया।

पाकिस्तान में सम्मिलित होने के प्रश्न पर जोधपुर का वातावरण दूषित तथा तनावपूर्ण हो चुका था। महाराजा ने महसुस किया कि ज्यादातर जागीरदार तथा वहाँ की जनता पाकिस्तान में विलय के बिल्कुल विरुद्ध है। माउन्टबेटन ने भी महाराजा को स्पष्ट शब्दों में समझाया कि धर्म के आधार पर बँटे देशो में मुस्लिम रियासत न होते हुए भी पाकिस्तान में मिलने के निर्णय से साम्प्रदायिक प्रतिक्रिया हो सकती है। सरदार पटेल भी किसी कीमत पर जोधपुर को पाकिस्तान में मिलते हुए नहीं देखना चाहते थे। अत: उन्होने जोधपुर के महाराजा की शर्तो को स्वीकार कर लिया जिसके अनुसार

- महाराजा साम्प्रदायिक प्रतिक्रिया हो सकती है। सरदार पटेल भी किसी कीमत पर जोधपुर को पाकिस्तान में मिलते हुए नहीं देखना चाहते थे। अत: उन्होने जोधपुर के महाराजा की शर्तो को स्वीकार कर लिया जिसके अनुसार
- महाराजा बिना किसी रुकावट के शास्रों का आयात कर सकेंगे।
- अकालग्रस्त इलाकों में खाधान्नों की सतत् आपूर्ति की जाएगी।
- महाराजा द्वारा जोधपुर रेलवे लाइन को कच्छ राज्य के बन्दरगाह तक मिलाने में कोई रुकावट नहीं पैदा की जाएगी।

परन्तु मारवाड़ के कुछ जागीरदार अभी तक विलय का विरोध कर रहे थे। वे मारवाड़ को एक स्वतंत्र राज्य के रुप में देखना चाहते थे लेकिन महाराजा हनवन्त सिंह ने समय को पहचानते हुए भारत-संघ के विलयपत्र पर अगस्त ९, १९४७ को हस्ताक्षर कर दिये। इस समय तक यह बात परिप हो चुका था कि मारवाड़ का राजस्थान संघ में विलय होगा क्योकि मारवाड़, भाषा व संस्कृति की दृष्टि से अपने पड़ोसी राज्यों से साम्य रखता था।





सिरोही की विलय सम्बंधी समस्याएँ व समाधान

सिरोही का शासक नाबालिग था। वहाँ के शासन प्रबन्ध की देखभाल दोवागढ़ की महारानी की अध्यक्षता में एजेन्सी कॉउन्सिल कर रही थी। उत्तराधिकार के प्रश्न पर भी विवाद था। सिरोही राजपूताने की अन्य रियासतों के समान ठराजपूताना एजेन्सी' के अन्तर्गत आती थी। देश की स्वतंत्रता के कुछ समय पश्चात् रियासती विभाग ने सिरोही को राजपूताना एजेन्सी से हटा कर ठवेस्टर्न इण्डिया एण्ड गुजराज स्टेट्स एजेन्सी' के अधीन कर दिया था। सिरोही की जनता ने रियासती विभाग के निर्णय का विरोध किया। सिरोही का वकील संघ भी इस निर्णय के खिलाफ था।

गोकुलभाई भ जो राजस्थान कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष होने के साथ साथ दोवागढ़ महारानी के सलाहकार भी थे, ने सिरोही को तत्काल केन्द्रशासित राज्य के रुप में ले लेने का सुझाव दिया। नवम्बर ८, १९४८ को एक समझौते के अन्तर्गत सिरोही को केन्द्रशासित राज्य बना दिया गया।

गुजराती समाज चाहता था कि सिरोही का विलय बंबई में हो माउन्ट आबू परम्परा तथा इतिहास की दृष्टि से गुजराती सम्यता से जुड़ा है। दूसरी तरफ राजपूताना की जनता का तर्क था कि सिरोही की अधिकांश जनता गुजराती नहीं बल्कि राजस्थानी भाषा बोलती है। राजपूताना के अनेक शासकों ने अपने निवास हेतु आबू में अनेक विशाल भवनों का निर्माण कराया है।

सरदार पटेल ने चतुराई से सिरोही राज्य का विभाजन कर दिया जिसके अनुसार आबूरोड और दिलवाड़ा तहसील बंबई में तथा शेष राज्य को राजस्थान में मिला दिया गया।

इस निर्णय के विरुद्ध सिरोही में आन्दोलन शुरु हो गया जिसमें गोकुलभाई भ तथा बलवन्त सिंह मेहता की महत्वपूर्ण भागीदारी थी। लेकिन सरदार पटेल ने अपनी कार्य कुशलता व कुटनीति से विलय सम्बंधी समस्याओं का हल कर दिया।